Read this essay on Environment in Hindi | पर्यावरण पर निबंध.
Contents:
- पर्यावरण का परिचय
- पर्यावरण की संकल्पना
- पर्यावरण-प्रदूषण
- विकास और पर्यावरण
- पर्यावरण संरक्षण
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1. पर्यावरण का परिचय:
पर्यावरण हमारी पृथ्वी पर जीवन का आधार है, जो न केवल मानव अपितु विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं एवं वनस्पति के उद्भव, विकास एवं अस्तित्व का आधार है ।
सभ्यता के विकास से वर्तमान युग तक मानव ने जो प्रगति की है उसमें पर्यावरण की महती भूमिका है और यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि मानव सभ्यता एवं संस्कृति का विकास मानव-पर्यावरण समानुकूलन एवं सामंजस्य का परिणाम है । यही कारण है कि अनेक प्राचीन सभ्यतायें प्रतिकूल पर्यावरण के कारण गर्त में समा गईं तथा अनेक जीवों तथा पादप-समूहों की प्रजातियाँ विलुप्त हो गई और अनेक पर यह संकट गहराता जा रहा है ।
पर्यावरण से तात्पर्य है वह वातावरण जिससे संपूर्ण जगत् या ब्रह्माण्ड या जीव जगत् घिरा हुआ है, दूसरे शब्दों में संपूर्ण पृथ्वी का जीवन एक आवरण से आवृत्त है जो इसे परिचालित भी करता है और स्वयं भी प्रभावित होता है । पर्यावरण अंग्रेजी के शब्द ‘एनवायरमेन्ट’ का अनुवाद है जो दो शब्द अर्थात् ‘एनवायरन’ और ‘मेन्ट’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ आवृत्त करना है अर्थात् जो चारों ओर से घेरे हुए है वह पर्यावरण है ।
शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ ‘सराउन्डिंग्स’ है जिसका तात्पर्य है ‘चारों ओर से घेरे हुए’ । यहाँ प्रश्न होता है कि किसे घेरे हुए तथा किस चीज द्वारा घेरे हुए । संपूर्ण पृथ्वी वायु मण्डल से आवृत्त है, इसी प्रकार धरातलीय जीव स्थल, जल, वायु एवं इनके विभिन्न घटकों के आवृत्त हैं ।
संपूर्ण जीव मण्डल जैविक एवं अजैविक घटकों द्वारा आवृत है । संपूर्ण जीव मण्डल बृहत रूप में स्थल मण्डल, जल मण्डल और वायु मण्डल से संबंधित है और यही भौगोलिक पर्यावरण का मूल है । पर्यावरण किसी एक तत्व का नाम नहीं अपितु अनेक तत्वों का सामूहिक नाम है जो संपूर्ण जीव जगत् को नियंत्रित करते हैं तथा एक दूसरे से अंतर संबंधित हैं और जिनका प्रभाव सामूहिक रूप से होता है ।
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इसी कारण कुछ विद्वानों ने इसे ‘मिल्यु’ से संबोधित किया है जिसका अर्थ है चारों ओर के वातावरण का समूह । सामूहिक रूप से ही पर्यावरण के अनेक तत्व क्रियाशील होकर क्षेत्र विशेष के पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं ।
इसी कारण कुछ विद्वानों ने पर्यावरण हेतु ‘हेबीटाट’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है ‘आवास’ । आवास से तात्पर्य है भौतिक एवं रासायनिक परिस्थितियों (जैसे- स्थान, अध:स्तर, जलवायु आदि) का एक विशिष्ट समुच्चय जो किसी विशिष्ट प्रजाति के समूह (वृहत् अथवा सूक्ष्म) की आवास-परिस्थितियों का बोध कराता है ।
प्रत्येक क्षेत्र विशेष की भौतिक प्रकृति में विशेष पादप समूहों एवं जीव-जंतुओं का विकास होता है जो वहाँ की परिस्थितियों के अनुकूल होता है, यहाँ तक कि मानव के व्यवसाय, यथा- कृषि, पशुचारण, उद्योग आदि के विकास में भी इसकी महती भूमिका होती है ।
इसी से संपूर्ण जीव मण्डल में विभिन्न दशाओं के अनुसार ‘जीवोम’ अथवा ‘बायोम’ का विकास होता है । वर्तमान में ‘पर्यावरण’ शब्द को सर्वमान्य स्वीकार किया गया है । पर्यावरण शब्द को विश्वकोष में परिभाषित करते हुए लिखा गया है- ”पर्यावरण के अंतर्गत उन सभी दशाओं, संगठन एवं प्रभावों को सम्मिलित किया जाता है जो किसी जीव अथवा प्रजाति के उद्भव, विकास एवं मृत्यु को प्रभावित करती हैं ।”
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स्पष्ट है कि पर्यावरण के अंतर्गत विभिन्न तत्वों को सम्मिलित किया जाता है । ये सभी तत्व निरंतर क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं । इसी के फलस्वरूप क्षेत्र में जीवन विकसित होता जाता है अन्यथा समाप्त हो जाता है ।
इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका’ में पर्यावरण को इस प्रकार परिभाषित किया है- ”पर्यावरण उन सभी बाह्य प्रभावों का समूह है जो जीवों को भौतिक एवं जैविक शक्ति से प्रभावित करते रहते हैं तथा प्रत्येक जीव को आवृत्त किये रहते हैं ।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि पर्यावरण अनेक तत्वों का प्रमुखत: प्राकृतिक तत्वों का समूह है जो जीव-जगत् को न केवल एकाकी रूप में अपितु सामूहिक रूप में प्रभावित करता है । मानव हो या अन्य जीव-जंतु सभी पर्यावरण की उपज हैं, उनकी उत्पत्ति, विकास एवं वर्तमान स्वरूप ही नहीं अपितु भावी अस्तित्व भी पर्यावरण की परिस्थिति पर ही निर्भर है ।
पर्यावरण शब्द को प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों में विविध रूपों में प्रयुक्त किया गया है, जैसे- प्राकृतिक पर्यावरण, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक पर्यावरण आदि । इसी प्रकार जैविक एवं अजैविक पर्यावरण तथा भौगोलिक पर्यावरण का भी प्रयोग होता है ।
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इन सभी के विश्लेषण में न जाकर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि मौलिक रूप से पर्यावरण का स्वरूप प्राकृतिक है अर्थात् प्राकृतिक तत्वों के प्रभाव एवं उपयोग से ही आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पर्यावरण का जन्म होता है और उसी से ये नियंत्रित एवं परिचालित होते हैं । अत: वर्तमान अध्ययन में प्राकृतिक पर्यावरण को आधार माना गया है जिसमें अनेक तत्वों के साथ-साथ मानव स्वयं भी एक कारक के रूप में कार्य करता है, इसे दूसरे शब्दों में भौगोलिक पर्यावरण भी कह सकते हैं ।
2. पर्यावरण की संकल्पना:
वास्तव में पर्यावरण कोई एक तत्व नहीं अपितु अनेक तत्वों का समूह है और यह सभी तत्व अथवा घटक एक प्राकृतिक संतुलन की स्थिति में रहते हुए एक ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं कि जिसमें मानव, जीव-जंतु, वनस्पति आदि का विकासक्रम अनवरत चलता रहे ।
किंतु यदि इन तत्वों में एक भी तत्व में कमी आ जाती है अथवा उसकी प्राकृतिक क्रिया में अवरोध आ जाता है तो उसका बुरा प्रभाव दूसरे तत्वों पर पड़ता है, जिससे एक नई विषम परिस्थिति का जन्म होता है । इस विषमता से जलवायु, वनस्पति, जीव-जंतु एवं मानव पर प्रतिकूल प्रभाव होता है ।
पर्यावरण, मानव एवं उसके द्वारा विकसित आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों से ही एक प्रदेश के पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण होता है और जब तक यह संतुलित रहता है प्रगति होती जाती है किंतु जैसे ही इसमें व्यतिक्रम आता है, न केवल प्रगति विकास अवरुद्ध हो जाता है अनेक प्रकार की प्राकृतिक विपदाओं का जन्म होता है जो जीव-जगत के अस्तित्व के लिए भी संकट का कारण बन जाता है ।
अनियंत्रित प्रौद्योगिकी और लक्ष्य विहीन विज्ञान का दुष्परिणाम:
आज विश्व को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की अनेक उपलब्धियों पर गर्व है । मनुष्य चाँद-तारों और समुद्र की गहराइयों तक पहुँच रहा है, कृषि का विस्तार हो रहा है, उद्योगों से नित-नई वस्तुओं का निर्माण हो रहा है, अणु एवं ‘जीन’ के रहस्यों का पता लगाया जा चुका है, ऊर्जा का परमाणु स्रोत, कम्प्यूटर प्रणाली का विकास, उपग्रह शोध आदि अनेकानेक साधनों से जहाँ उसने अनेक सुख-सुविधाओं का विकास किया है, वहीं पर्यावरण के अनेक पक्षों को हानि पहुँचा कर पारिस्थितिकी-तंत्र को असंतुलित भी कर रहा है ।
21वीं सदी के प्रारम्भ में आज हम सभी इस तथ्य से परिचित हो चुके हैं कि पर्यावरण को नष्ट करने वाले निर्बाध विकास और उस विकास को बढ़ावा देने वाली अनियंत्रित प्रौद्योगिकी से विश्व के न केवल भविष्य अपितु वर्तमान पर भी संकट के बादल छाने लगे हैं ।
मानव जाति उस अत्यंत जटिल और समन्वित पारिस्थितिकीय श्रृंखला का एक अंग है जो अपने में वायु, पृथ्वी और जल तथा अत्यधिक समृद्ध और विविध रूपों में वनस्पति एवं अन्य जीव-जंतुओं को समेटे हुए हैं । इस श्रृंखला की किसी महत्वपूर्ण कड़ी को क्षति पहुँचाने वाले मनुष्य के किसी भी कार्य से समूचे पारिस्थितिक-तंत्र को खतरा पैदा हो जाता है ।
3. पर्यावरण प्रदूषण:
समूचे विश्व के सामने आज पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या अनेक विकराल रूपों में सामने आ रही है । तात्कालिक लाभों के लालच में मानव ने स्वयं अपने भविष्य को दीर्घकालीन संकट में डाल दिया है । बढ़ती जनसंख्या, अनियंत्रित औद्योगिकीकरण और शहरीकरण ने अपने आकर्षक प्रगति की चकाचौंध के साथ ही वायु, जल, मृदा को व्यापक रूप से प्रदूषित किया है और ज्यों-ज्यों प्रगति और विकास होता चला जा रहा है, पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि हो रही है ।
पर्यावरण प्रदूषण का यह प्रकोप स्थानीय एवं क्षेत्रीय न होकर विश्वव्यापी होता जा रहा है, जलवायु परिवर्तन, पृथ्वी के तापमान में वृद्धि की प्रवृत्ति, भूमि की उत्पादन क्षमता में कमी, क्लोरोफ्लोरो कार्बन से ओजोन परत का विरल होना, असमय बाढ़, अकाल, भूकंप का आना एवं विश्व जैव संपदा के विलुप्त होने का संकट, आदि अनेक पक्ष पर्यावरण प्रदूषण के व्यापक स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं ।
4. विकास और पर्यावरण:
विकास एवं पर्यावरण को एक दूसरे का विरोधी माना जाने लगा है । किंतु यह धारणा भ्रामक है । विकास की आधुनिक अवधारणाओं के माध्यम से ही विश्व की जनसंख्या को प्रश्रय दिया जा सकता है । प्रमुख आवश्यकता यह सुनिश्चित करने की है कि हमारी विकास परियोजनाओं से पर्यावरण संतुलन को क्षति नहीं पहुँचे क्योंकि इस प्रकार की क्षति से न केवल विकास की गति अवरुद्ध होगी अपितु स्वयं मानव का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा ।
पर्यावरण एवं विकास की समस्याओं को अलग करके नहीं देखा जा सकता । पर्यावरण एवं विकास की वर्तमान अवधारणा सतत् अथवा संधृत विकास है अर्थात् विनाश रहित विकास हो, विकास ऐसा हो जिससे पर्यावरण को हानि न हो । इसके लिये एक नवीन दृष्टिकोण, ठोस नीति एवं विश्व सहयोग की आवश्यकता है ।
5. पर्यावरण संरक्षण:
आज यह तथ्य विश्व के सभी देश स्वीकार कर चुके हैं कि पर्यावरण एक साझी विरासत है और इसकी रक्षा का दायित्व किसी एक देश अथवा कुछ देशों का नहीं अपितु संपूर्ण विश्व समुदाय का है । पर्यावरण एवं प्रदूषण के खतरों के संबंध में अनेक विद्वानों ने विचार व्यक्त किये तथा अनेक देशों में प्रयत्न होते रहे किंतु इसके संबंध में विश्व का ध्यान सर्वप्रथम जून, 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में हुए अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन से आकृष्ट हुआ जिसमें भारत सहित 58 देशों ने भाग लिया तथा विश्व के 119 देशों ने पहली बार ”एक ही पृथ्वी” का सिद्धांत स्वीकार किया ।
इसी सम्मेलन से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ । यहाँ पारित स्टॉकहोम घोषणा-पत्र पर्यावरण संरक्षण से संबंधित गतिविधियों का ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसमें पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण के 26 सिद्धांत वर्णित किये गये हैं ।
इस सम्मेलन के पश्चात् संपूर्ण विश्व में पर्यावरण की चेतना का प्रारंभ हुआ तथा अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक स्तरों पर पर्यावरण कार्यक्रमों का न केवल आयोजन होने लगा अपितु इस दिशा में ठोस प्रयत्न भी किये गये ।
अनेक देशों में कानून द्वारा पर्यावरण को संरक्षित करने के प्रयास किये जा रहे हैं तो नित नये शोध द्वारा पर्यावरण की विभिन्न समस्याओं का निदान निकाला जा रहा है और यह आज स्पष्ट हो चुका है कि पृथ्वी के पर्यावरण को बचाने का युद्ध टुकड़ों में नहीं लड़ा जा सकता, हमें विकास करना है और पारिस्थितिकी-संतुलन को भी बनाये रखना है ।
स्टॉकहोम सम्मेलन की 20वीं वर्षगाँठ पर अर्थात् 5 से 15 जून तक ब्राजील के नगर रियो-डी-जेनेरियो में 3 जून से 15 जून तक विश्व पर्यावरण सम्मेलन आयोजित हुआ जिसे ‘रियो सम्मेलन’ अथवा ‘पृथ्वी सम्मेलन-1992’ की संज्ञा दी गई । इस सम्मेलन में एक बार पुन: 165 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों प्रतिनिधि-मण्डलों, पर्यावरणविदों, पत्रकारों आदि ने हिस्सा लिया ।
इसमें न केवल अपने-अपने देशों के पर्यावरण प्रतिवेदनों को प्रस्तुत किया गया अपितु विगत 20 वर्षों में हुए पर्यावरण प्रयत्नों की समीक्षा की गईं और विश्व के सम्मुख उपस्थित पर्यावरण चुनौतियों पर जैसे- पृथ्वी के तापमान में वृद्धि, ओजोन परत में छेद, संसाधन संरक्षण, विकास बनाम पर्यावरण, जैविक संसाधनों की विविधता एवं संरक्षण आदि पर विचार प्रस्तुत किये गये एवं एजेण्डा-21 के अंतर्गत 21वीं सदी में पर्यावरण संरक्षण को नई दिशा देने हेतु निर्देश तैयार किये गये ।
तात्पर्य यह है कि संपूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिक असंतुलन के प्रति सचेष्ट है । भारत में इस दिशा में पर्याप्त कार्य सरकारी एवं गैर-सरकारी स्तरों पर हो रहे हैं । आवश्यकता है जन मानस को पर्यावरण संबंधी विविध आयामों की जानकारी देने की, उनको सचेष्ट करने की, जिससे कि वे पर्यावरण संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभा सकें ।
इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत पुस्तक की रचना की गई है जिसमें पर्यावरण एवं पारिस्थितिक-तंत्र की व्याख्या करने के साथ-साथ प्रदूषण के विविध प्रकारों जनसंख्या का पर्यावरण पर प्रभाव, संसाधनों का संरक्षण, विकास एवं पर्यावरण, पर्यावरण प्रबंधन आदि का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है तथा अंत में भारत की पर्यावरणीय समस्याओं का संक्षेप में विवेचन है । सर्वप्रथम पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी का अर्थ एवं उसके घटकों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तावना स्वरूप प्रस्तुत है ।